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प्यारे वीरेन (डंगवाल) का प्यारा-सा पत्र... लक्ष्मण सिंह बिष्ट बटरोही

(पत्र में उसने तारीख नहीं लिखी है, फिर भी याद है कि यह पत्र 1999 की शरद ऋतु का है जो उसने बरेली से बुदापैश्त को भेजा था. हर वर्ष की तरह उस साल भी यूरोप की सबसे बड़ी नदी दुना (अंग्रेजी डेन्यूब) में तैरते हुए जहाज पर संसार की सभी प्रमुख भाषाओँ की कविताओं का पाठ होना था, जिसमें उस वर्ष हिंदी को भी चुना गया था. हिंदी कविताओं के चयन का जिम्मा मेरा था. पहले मैंने वीरेन की कविताओं का चयन किया था, मगर वह भाग लेने नहीं आया. उसके आलस्य को लताड़ते हुए मैंने उसे लंबा पत्र लिखा, जिसके उत्तर में उसने मुझे ये जवाब दिया.)


प्यारे दद्दा,
तुम्हारा किंचित मलीन मन से लिखा गया पत्र मिला. अपनी जगह तुम्हारा शिकवा ठीक भी है. लेकिन तुम्हें बताता हूँ – ईमान से – कि तुम्हारे प्रति कृतज्ञता अनुभव करने के बावजूद मेरा यह साहस नहीं हुआ कि देश के इकलौते प्रतिनिधि कवि के बतौर अपनी कविता मैं भेजूं. अपनी सीमाओं को मुझसे ज्यादा और कौन जानता है. (औकात नहीं लिख दे रहा मैं). इतना जोरदार, प्रतिभा-संपन्न यह महादेश, इतना अल्पज्ञात, अल्पज्ञ मैं. इसे झूठी विनम्रता न जानना. बिलकुल सच्चे मन से यह कहता हूँ.
उसी दिन से तुम्हें लिखने की उधेड़बुन में था. आज अभी विभाग में, अकेले बैठे, इस रद्दी कागज पर.

परसों रात अपने छोटे भाई के साथ मैं नैनीताल गया. किसी से भी मिले बगैर कल गरमपानी, भवाली, घोडाखाल, भीमताल भटका. कुछ देर फरसौली में भगत की दूकान पर जरूर थोड़ी देर बैठा. भवाली में एयरफ़ोर्स के आगे जहाँ एच एम टी का उजाड़, रोमांचक दफ्तर है, वहाँ कुछ देर सुस्ताते हुए मैंने तुम्हें और सईद और खुद को और देवेन को भी तेज तीखे याद किया. बादल जैसे थे. हवा पसीने को सुखाती ठंढी थी. इसी परिदृश्य ने मुझे बनाया या शायद तबाह किया. या शायद दोनों. भावुक मैं भी हूँ. संभवतः सिर्फ वही हूँ. गलत न समझना.

जीवन अभी तक पटरी पर नहीं है. एक डिब्बा आता है तो दूसरा उतर जाता है. इधर एक कविता मैंने लिखी जिसकी शुरुआती पंक्तियाँ हैं : ‘घोड़ा एक न बेच सका मैं, फिर भी गया सो. इससे मुझको शाप मिला तू जैसा है वह हो.

सईद ने बेहद कृपापूर्वक अगले संग्रह का आवरण बना कर मुझे भेजा है. उसे अभी तक पावती भी नहीं भेजी है. दोस्त हमेशा मुझ पर मेहरबान रहे हैं. मेरी अपात्रता के बावजूद. मैं भी उन्हीं को कलेजे से लगाये दुनिया के झमेले में भटकता-फिरता हूँ. प्रेम रह-रह कर पुकारें मारता है, जैसे उतरते ग्रीष्म की शाम में थकी हुई कोयल. जैसे नींद में रेल की आवाज. बुरांश इस बार जल्दी खिले हैं और भरपूर हैं. हवा में बांज के पेड़ों की नमी है. शिवरात्रि को रात भर बारिश हुई थी. भवाली के आगे मानसिंह ने चाय के गिलास में चम्मच हिलाकर कहा, ‘मौसम की नजर ना लगे’. मुझे हँसना पड़ा.

देश-मुलुक के हालात ठीक होते दीखते नहीं हालाँकि क्लिंटन के स्वागत की जोरदार तैयारी है बल. मध्यवर्ग मोदवर्ग बन चुका. साहित्य कटोरी में रखने की चीज. 
शेष शुभ है. मैं तो कहता हूँ एकाध साल और रुक सकते हो तो रुक जाओ. नैनीताल अब तुम्हें भी अटपटा ही लगेगा. केवल स्मृति के सहारे चुतियापे की गाड़ी को कैसे और कब तक खींचोगे?
या फिर जल्दी आ ही जाओ. फिर कुछ देखा जाए.
लिखने-पढ़ने का कैसा रहा? पिछली बार जब तुम आए तो बात ही नहीं हो सकी. होनी भी कैसी थी!
बसंत, यहाँ बरेली में भी, आ गया है. लड़कियों के दुपट्टे लहराते हैं हवा की फड़कन पर. प्रसाद की याद है न! ‘यौवन तेरी शीतल छाया, तुझ में बैठ घूँट भर पी लूँ, जो रस तू है, लाया.’ हाँ यह बरसात, जो कमबख्त लड़कपन की किसी कुटेव की तरह आत्मा से लगा बैठा है.
जी छोटा न करना, बड़ा दुख होगा. 
सस्नेह तुम्हारा, वीरेन 
चिट्ठी भेज सकोगे तो तसल्ली मिलेगी.

(उस बार सारे संसार के कवियों के साथ वीरेन को सुनना तो रह गया, अलबत्ता भारत लौटने के बाद जब मैं उत्तराखंड से साहित्य अकादमी का सदस्य था, मैंने अकादमी सम्मान के लिए उसका नाम प्रेषित किया था. उन दिनों हिंदी के संयोजक गिरिराज किशोर जी थे. मैं यह नहीं कहता कि वह हमारे कारण हुआ, मगर मेरी दिली इच्छा उस बार पूरी हुई.)


लेख एवं चित्र:- लक्ष्मण सिंह बिष्ट बटरोही 

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