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बिनसर घाटी का खशिया देवता चरवाहा कलबिष्ट..लेख : लक्ष्मण सिंह बिष्ट "बटरोही"

हमारी विरासत

बिनसर घाटी का खशिया देवता चरवाहा कलबिष्ट और 

दुष्ट सामंत नौलखिया पांडे के षड्यंत्र का कुमाऊँनी जागर.

उत्तराखंड के लोक देवता ऐसे वीर युवक हैं जो समाज में व्याप्त सामंतों-गढ़पतियों के अत्याचार से आम जनता को भय-मुक्त करते रहे हैं. ये लोग आम लोगों के बीच से ही निकले होते थे. यहाँ का परंपरागत समाज मूल रूप से वर्ण-विहीन समाज था इसलिए यहाँ के समाज में मैदानों की तरह का जातिगत ऊंच-नीच नहीं था. यहाँ के मूल निवासी ‘खश’ या ‘खस’ थे जिनमें जाति-व्यवस्था नहीं थी. बाद में राजों-नरेशों के साथ जो पुरोहित आये, उन्होंने लोगों में उनके कार्यों-दायित्वों के हिसाब से जातियों का आबंटन किया. लेकिन यह बहुत बाद की बात है. इन लोक-देवताओं की एक और विशेषता यह थी कि प्रकृति के बीच रहने वाले इन लोगों के अंतःकरण में प्राकृतिक शक्तियों का भंडार था. कुमाऊँ में ऐसा ही एक वीर युवक था, कलबिष्ट जो चरवाहा था और इस इलाके के सबसे सुन्दर पहाड़ी शिखर बिनसर में अत्यंत मधुर जुड़वां-बांसुरी बजाता हुआ अपनी ‘बारह बिसी’ (240) भैंसों और अनेक दूसरे मवेशियों को चराता हुआ प्रकृति और जीव-जंतुओं से बतियाता रहता था. उसी गाँव में एक नौलखिया पांडे रहता था जिसने अपनी अत्यंत सुंदरी पत्नी कमला को अपने विशाल महल में कैद कर रखा था. क्रूर सामंत नौलखिया पांडे ने, जिसे नौ लाख रूपये प्रतिवर्ष का राजस्व प्राप्त होता था, अपनी पत्नी के लिए हर सुख-सुविधा जुटाई हुई थी. मगर उस विशाल महल में कैद रूपसी कमला मुक्ति के लिए छटपटाती रहती थी.

एक दिन कमला ने कलबिष्ट के मुरली की मधुर तान सुनी तो उसे लगा मानो उसका मुक्तिदाता आ पहुँचा है. अपनी दासियों को कमला ने उस बांसुरी वादक को खोजने के लिए भेजा, दासियाँ कलबिष्ट को महल में बुला लायीं... और इस प्रकार कलबिष्ट हर रोज कमला को अपना मधुर संगीत सुनाने के लिए महल में आने लगा. कमला अपनी सुधबुध खोकर कलबिष्ट के संगीत-संसार में खोई रहने लगी. मगर नौ लाख की जागीर का स्वामी नौलखिया पंडित इसे कैसे सहन कर सकता था ? उसने कलबिष्ट को मारने के लिए तांत्रिकों-शैतानों की विशाल सेना खड़ी कर दी. मगर नौलखिया न तो कमला का और न कलबिष्ट का ही बाल तक बांका कर पाया. इस कथा में ध्यान देने की बात यह है कि प्रेम त्रिकोण में पहली बार समाज का पूज्य अंग ब्राह्मण खलनायक के रूप में उभरता है. शायद यह इस बात के आक्रोश की अभिव्यक्ति है कि यहाँ के वर्णविहीन सरल समाज को नौलखिया के पुरखे (प्रथम चंद राजा सोम चंद के पुरोहित हरिहर पांडे) ने जातियों में बांटा.


(प्रस्तुत जागर ‘हुड़किया बौल’ के रूप में वीर रसात्मक शैली में गाई जाने वाली कुमाऊँ की एक लोकप्रिय गाथा है. ‘हुड़किया बौल’ गीत की ऐसी शैली है जो मुख्यतः धान रोपाई के समय श्रमिकों में उत्साह का संचार करने के लिए गाया जाता है. इसमें किसी परोपकारी वीर मल्ल के वीरतापूर्ण कारनामों का वर्णन किया जाता है. मुख्य गायक अपने हाथ में डमरू के आकार का वाद्य ‘हुड़का’ लेकर अपने चारों ओर धान की रोपाई के लिए एकत्र श्रमिकों को अपने मधुर कंठ से गाथा सुनाता है. यह कथा प्रेम, करुणा, प्राकृतिक सौन्दर्य और मुख्य रूप से वीरतापूर्ण कारनामों से जुड़ी रहती है. मुख्य कथा के विस्तार के साथ ही गायक बीच-बीच में पौंधों की रोपाई कर रहे श्रमिकों को उत्साहित करने के लिए उन्हें सीधे भी संबोधित करता जाता है. गाथा की अन्य विशेषता यह भी है कि इसमें नायक और खलनायक दोनों के प्रति सम्मान का भाव व्यक्त करते हुए वस्तुनिष्ठ ढंग से कथा का विस्तार किया जाता है.)

मंगलाचरण :-
इस गाँव के देवता नरसिंह हो..., भूमि के देवता भूमिया हो..., ओ मेरे पंचनाम देवो... गोल्ल, गंगनाथ, भोलनाथ, हरू और सैमज्यु, मेरी विनती सुनो हो... (अरे, ठीक से पानी लगाओ रे खेत में!) पर्वत शिखर पर से उजाले की पहली किरण गिराने वाले ओ सूरज भगवान हो... मेरी विनती सुनो! इस अँधियारे को जल्दी से दूर करो मेरे देवताओ... (अरे बिर्देवज्यु, ये खेत तो पूरा हो गया है शायद, अच्छी तरह से देखभाल लो भैया, कहीं किसी कोने में रोपाई बची तो नहीं रह गई)... ओ बारह बिसी (२४०) रोपा लगाने वाले वीरो... ओ बारह बिसी तोपा (रोपाई के लिए तैयार की गई पौध) लगाने वाले वीरो... तुम सबसे मेरी यह विनती है की इस चौमास के महीने में हमको छाया तो खूब देना मगर जरूरत से ज्यादा बारिश मत देना जिससे कि ये शिशु पौंधे बह न जाएँ....ओ क्षितिज की दसों दिशाओं में फैले देवताओ, हम लोग तुम्हारी शरण में आए हैं, हमको ऐसी धूप और छाया देना कि ये रोप गए पौंधे हमें खूब घनी फसल दें... द्रोण पर्वत पर स्थित ओ दूनागिरी देवी, तुम इस फसल की रक्षा करना... ओ नौ लाख कत्यूरियो, तुम्हारा ही यह वंशज मल्लों का मल्ल कलबिष्ट तुम्हारी शरण में आया है, ध्यान से इसकी गाथा सुनना!...

कथा की भूमिका :-
ओ कल्याण बिष्ट, तू जो कोट्यूड-मत्याव गाँव में पिता राम सिंह के बीज से, माता रामौती के गर्भ से पैदा हुआ ओ बिष्ट कल्याण, हमारी बिनती सुनो! ओ रे अभागे कल्याण बिष्ट, तू इस धरती पर हमें धोखा देने के लिए पैदा ही क्यों हुआ रे... असमय हमको छोड़कर चला गया... इससे अच्छा तो यह होता कि तू कुत्ते की योनि में जन्मा होता तो देहरी पर बैठा घर की रखवाली तो करता... या तू दुधारू भैंस ही जन्मा होता तो हमारे गोठ की शोभा बना हुआ हमारे परिवार को पाल रहा होता... ओ शमशानघाट में हूकने वाले निखट्टू सियार, तू शमशानघाट में ही रह जाता, सारी जिंदगी मुर्दाघाट में हू-हू हूकता रहता!... तू हमारे मल्लों के वंश में जन्मा ही क्यों अभागे! जिन बारह बिसी दुधारू और बारह बिसी गर्भिणी भैंसों की तू सेवा-टहल करता था, उनका अब क्या होगा रे, वे तो सब गोठ में बंधी की बंधी रह गयीं...

कथा-विस्तार :-
कैसा सजीला जवान था तू... ओ रे ठाकुर कल्याण बिष्ट, तू जब अपने बलशाली कदम कमरे से बाहर निकालता था, सारी धरती हिलने लगती थी... बारह बिसी दुधारू और बारह बिसी गर्भिणी भैसों को जब तू गोठ से निकालकर जंगल की ओर हांकता था, तेरे हाथ में घुंगरू बंधी दराती खनखनाती थी, होंठों में बिणयी दबी रहती थी, शरीर में भेड़ के ऊन की फतुई, कंधे पर लाल कमली लटकी रहती थी... ओ रे सजीले-गठीले नौजवान कलबिष्ट, तेरी कमर में जुड़वाँ मुरली खुंसी रहती थी... क्या नजारा होता था उस वक़्त बिनसर के जंगल का!...बारह बिसी दुधारू और बारह बिसी गर्भिणी भैंसों के साथ वो खसिया कलबिष्ट मस्ती में जा रहा होता... हाथ में दराती, होठों में बिणई, कंधे में कम्बल, कमर में मुरली... आगे दुधारू, पीछे गर्भिणी भैंसें और अगल-बगल चार सींगों वाले खस्सी बकरे... इतना विशाल परिवार तूने अपने लिए क्यों जुटाया रे खाशिए राजपूत!... और तू क्या बतियाता रहता था अपने चनियाँ खस्सी से,बिनुवा-सेतुवा बैलों से, लखमा ढडवे (बिलाव) से, हिलुवा-तिलुवा बकरों से...
ओ बारह बिसी दुधारू और बारह बिसी गर्भिणी भैंसो, इस भावुक मल्ल की तुम रक्षा करना; ओ लखमा बिल्ली, किसी भी तरह का संकट आने पर इसे सावधान कर देना... ओ धरती माँ, कुछ देर के लिए अपनी गोद में लेकर एस विश्राम दे देना... और जब यह छबीला नौजवान बिनसर शिखर पर पहुँच जाएगा, जब मवेशी खड़े-खड़े धूप सेंक रहे होंगे तब यह भावुक मल्ल अपनी घुंगरू बंधी दराती से तुम्हारे लिए पौष्टिक घास और लटुवा बांज के पत्ते काटकर लायेगा, शिशु मवेशियों की पीठ पर और चौसिंगिया बकरों के सींगों पर घी मलेगा... और फिर सबके बीच बैठकर अपनी जुड़वां मुरली हाथों में लेकर शिखरों को अपनी प्यारी पहाड़ी धुन सुनाने लगेगा... ओ रे ठाकुर कल्याण बिष्ट, तेरे कारण क्या ठाट हैं इन मवेशियों के और क्या ठाट हैं बिनसर जंगल के!...

मुरली की धुन पर प्रकृति-संगीत :-
अब एक पहर रात बीत गई है... रात का दूसरा पहर भी बीत गया... तीसरा पहर भी... और यह देखो, चौथे पहर में सूरज भगवान ने अपनी पंखुडियाँ खोल दी हैं... और ओ रे कल्याण बिष्ट, तू अब गाय-भैंसों के गले की रस्सी खोल रहा है, क्षितिज पर से क्षेत्रपाल नगाड़ा बजाने लगे हैं, ब्रह्मा जी वेद गाने लगे हैं और तू रे ओ कल्याण बिष्ट, नहा-धो कर बारह बिसी दुधारू भैंसों को दुहने लगा है... दुधमुंहे बछड़ों-कटरों को उनकी मह्तारियों के थनों से लगा रहा है!...

(शेष लेखक के आख्यान-संग्रह ‘पहाड़ की जड़ें’ प्रकाशक दखल प्रकाशन, 107, कोणार्क सोसाइटी, प्लाट नंबर 22, आई. पी. एक्सटेंशन, पटपडगंज, दिल्ली-92. पृष्ठ 94 से 106 पर)

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