एक साक्षात्कार: रंगकर्मी श्री बी.सी. उप्रेती जी के साथ
मैं
जब भी आपके सामने होता हूँ तो मुझे "बेड़ू पाको..." गीत की याद आ जाती है. आखिर उस दिन ऐसा क्या हुआ कि ये उत्तराखंड का विश्वविख्यात लोकगीत बन गया?
उस दिन
मोहन
दा
(स्व.
मोहन
उप्रेती
जी)
सुबह
से
ही
दो
लाइनों
"बेडु
पाको
बारो
मासा,
ओ
नरण
काफल
पाको
चैत
मेरी
छैला"
को
बार-बार
गाये
जा
रहे
थे.
क्योकि
तब
तक
ये
दो
लाइनें
कहावत
के
तौर
पर
गायी
जाती
थी
जिसकी
धुन
भी
थोड़ा
अलग
थी.
उसके
बाद
जब
मोहन
दा
साह
जी
(बी.एल.
साह)
से
मिलने
उद्दा
जी
की
दुकान
में
गये
तो
किसको
मालूम
था
कि
आज
एक
ऐसे
लोकगीत
की
रचना
होगी
जो
उत्तराखंड
की
पहचान
बन
जायेगा.
जब
दाज्यू
घर
वापस
आये
तो
उन्होंने
गा
के
सुनाया
और
मुझसे
पूछा
भी
कैसा
लगा?
फिर
धीरे-धीरे
ये
गीत
स्टेज
में
अपनी
पहचान
बनाने
लगा.
फिर
तत्कालीन
प्रधानमंत्री
पंडित
जवाहर
लाल
नेहरू
के
सामने
भी
मोहन
दा
ने
ये
गीत
गाया
भी
और
नृत्य
भी
खुद
ही
किया.
तब
से
नेहरू
जी
दाज्यू
को
"बेड़ू
पाको
बॉय"
बुलाते
थे.
अब
बात करते है
अल्मोड़ा शहर की
जिसे 'सांस्कृतिक नगरी' भी
कहा जाता है.
काफी लंबा-चौड़ा
इतिहास है इस
शहर का और
आपके बचपन की
यादें जुडी हुई
है. तो तबके
और आज के
अल्मोड़ा में आपको
क्या बदलाव महसूस
हुए?
देखिये बदलाव
तो
प्रकृति
का
नियम
ही
है.
बगैर
बदलाव
के
ही
विकासशील
बनना
असंभव
है.
हाँ
अगर
हम
अपने
वजूद
को
भुलाकर,
अपना
लोकसंसार
को
भुलाकर,
रीती-रिवाजों
को
भुलाकर
आगे
बढ़ने
की
कल्पना
करें
तो
ये
अच्छी
बात
नहीं
है.
क्योंकि
चाहे
वो
लोकगाथा
हो
या
फिर
लोकसंगीत
इनका
कहीं
न
कहीं
हमारे
जीवन
में
प्रत्यक्ष
रूप
से
सकारात्मक
प्रभाव
पड़ता
है.
हम
अपनी
संस्कृति
और
धरोहर
से
परे
होकर
जिंदगी
का
निर्वाह
नहीं
कर
सकते.
कहीं
न
कही
हमें
वो
अपनी
तरफ
खींच
ही
लेती
है.
मैं
जब
भी
अपने
घर
(अल्मोड़ा)
जाता
हूँ
तो
बदलाव
तो
बहुत
महसूस
करता
हूँ.
नए-नए
लोग,
बड़े-बड़े
भवन
और
आधुनिकता
के
लिबास
ओढे
हमारी
नयी
पीढ़ी.
किन्तु
जहाँ
बात
आती
है
सांस्कृतिक
नगरी
अल्मोड़ा
की
तो
अब
पहले
जैसी
बात
नहीं
रही.
क्योंकि?
हमारा
टाइम
कुछ
और
था
आज
का
कुछ
और.
सबसे पहले
तो
उस
दौर
के
लोग
कला
प्रेमी
थे,
साहित्य
प्रेमी
थे
और
लोगों
के
अंदर
कला
के
प्रति
अपार
सम्मान
था.
लोग
निस्वार्थ
भाव
से
काम
करते
थे.
सबसे
महत्वपूर्ण
बात
उस
समय
का
रंगमंच
अपना
था.
उसमे
कोई
फूहड़ता
नही
थी
सिर्फ
नवीनता
थी.
लोगों
के
अंदर
इसका
जबरदस्त
क्रेज
था
मैं
आपको
नंदा
देवी
के
मेले
की
ही
बात
बताता
हूँ
कि
तब
लोग
मेले
में
दूर-दूर
से
रात
को
रहने
आते
थे
और
रातभर
झोड़ा,
चांचरी
और
भगनौल
की
महफ़िल
सजती
थी.
और
रामलीलाओं
का
तो
इंतजार
ही
साल
भर
से
रहने
वाला
ठैरा.
अब
के
परिपेक्ष्य
में
देखा
जाये
तो
अल्मोड़ा
की
वो
स्वर्णिम
संस्कृति
कहीं
न
कहीं
पिछड़ते
जा
रही
है.
मैं आपको बता दूँ कि अल्मोड़ा में
हमारी संस्था जो पहले 'यूनाइटेड आर्टिस्ट' थी जिसका नाम लगभग 1952 में बदलकर 'लोक कलाकार
संघ' रखा गया. जिसमें मोहन दा, बृजेन्द्र लाल साह, बांके लाल साह, लेनिन पन्त, सुरेंद्र
मेहता और बांकी हम सब लोग थे. और इस संघ में हर तरह की एक्टिविटी थी. बृजेन्द्र लाल
साह जी लिखते थे उनका लिखा नाटक "शिल्पी की बेटी" और "चौराहे की आत्मा"
ये दो नाटक तब बहुत प्रसिद्ध हुए. और तीसरा हमने एक "छाया नृत्य" नाम से
किया. जिसमें हमारे साथ तारादत्त सती जी जुड़े थे जो डांस की शिक्षा उदय शकर जी के छोटे
भाई देवेन शंकर जी से लेकर आये थे. हमें जो डांस की ट्रेनिंग मिली सती जी से ही मिली.
इसके साथ ही साथ इसमें एक पेंटिंग क्लास भी होती थी. इसके आलावा प्रसिद्ध लोकगायक मोहन
सिंह रीठागाड़ी, जोगाराम जैसे लोक गायक भी वहां आते थे और सिखाते थे. मुझे ये कहने में
कोई भी आपत्ति नहीं होगी कि 'लोक कलाकार संघ' के ही प्रयासों के बदौलत तब उत्तराखंड
के लोक कलाकारों के अंदर लोककलाओं के प्रति जागरण की नींव पड़ी थी.
उस ज़माने में तो हर कलाकार लोक
गायक था. लेकिन मोहन सिंह रीठागाड़ी, जोगा राम और गोपीदास ये तीनों तो लोकगायकी के हर
क्षेत्र में अति विलक्षणी थे. मोहन दा ने इनसे बहुत सीखा वो तो तीन महीने तक रीठागाड़
रह के आये मोहन सिंह रीठागाड़ी जी के पास.
सब कुछ
सही
चल
रहा
था
'लोक
कलाकार
संघ'
में नए-नए नाटक
हो
रहे
थे.
नए
नए
लोकगीत
बनकर
सामने
आ
रहे
थे.
हुड़का
डांस
और
घसेरी
डांस
कोरियोग्राफ
हो
रहे
थे.
लेकिन
मोहन
दा
एक
रंगकर्मी
के
साथ
ही
साथ
कम्युनिस्ट
भी
थे.
जब
1962 में
चाइना
का
अटैक
हुआ
तो
उस
समय
मोहन
दा
6 महीने
जेल
भी
रहे
और
साथ
ही
साथ
बगैर
परमिशन
के
उनके
अल्मोड़ा
आने
पर
भी
प्रतिबन्ध
लग
गया.
मोहन
दा
का
जेल
जाना
और
'लोक
कलाकार
संघ'
का
धीरे-धीरे
कमजोर
होना.
क्योकि
? तब
बहुत
से
लोग
नौकरी
के
लिए
बाहर
चले
गये.
कई
कलाकारों
की
शादी
हो
गयीं.
फिर
मोहन
दा
दिल्ली
आ
गये
हम
सब
भी
आ
गये
तो
फिर
1968 में
यहाँ
"पर्वतीय
कला
केंद्र"
की
स्थापना
की.
उसके
बाद
केंद्र
का
सफर
अभी
तक
चल
रहा
है.
'पर्वतीय
कला केंद्र' की बात
जब भी आती
है तो जेहन
में मोहन दा
(स्व. मोहन उप्रेती
जी) की हुड़का
बजाते हुए छवि
अपने आप ही
आ जाती है.
उत्तराखंड की लोक
गाथाओं को मंच
देने के लिए
मोहन दा और
इस केंद्र का
कितना बड़ा योगदान
है?
देखिये जहाँ
तक
मोहन
दा
के
योगदान
की
बात
है
तो
वो
चाहे
अल्मोड़ा
के
'लोक
कलाकार
संघ'
की
बात
हो
या
फिर
दिल्ली
का
"पर्वतीय
कला
केंद्र"
उनके
बगैर
तो
केंद्र
की
कल्पना
करना
ही
बेकार
था.
उन्होंने
दिल्ली
में
केंद्र
बनाया
और
लोक
कलाकारों
को
जोड़ा
और
पहाड़
से
लोकगायकों
को
बुलाकर
वहां
की
लोकगाथाओं
पर
काम
किया
और
उन्हें
बड़ा
मंच
दिया.
उन्ही
की
बदौलत
राजुला
मालूशाही,
गोरिया,
अजूबा
बफौल,
रमौल,
जीतू
बगड़वाल
और
कई
लोक
गाथाओं
का
मंचन
कर
पर्वतीय
कला
केंद्र
के
द्धारा
उत्तराखंड
की
संस्कृति
को
एक
बहुत
बड़ी
उपलब्धि
दी.
इसके
साथ
मोहन
दा
ने
इन्द्रसभा
और
मेघदूत
का
मंचन
भी
केंद्र
में
करवाया.
उन्हेंने
कई
लोक
धुनें
बनायीं
जो
कई
बार
बॉलीवुड
संगीत
में
भी
प्रयोग
हुई.
आप खुद
एक
रंगकर्मी
है.
म्यूजिक
कंपोजर
है.
लोक
नृत्य
के
जानकार
है.
उत्तराखंड
की
संस्कृति
को
आगे
बढ़ाने
में
आपका
भी
अमूल्य
योगदान
है.
क्योकि
आप
भी
मोहन
दा
के
टीम
यानिकि
'पर्वतीय
कला
केंद्र'
के
अहम
हिस्सा
थे
और
अभी
भी
हो
आपने
कई
सारे
नाटकों
में
संगीत
दिया
है.
अभी
हमारी
लोक
संस्कृति
में
बहुत
बदलाव
देखने
को
मिल
रहे
है.
बदलाव
के
इस
दौर
में
आप
पहाड़
के
रंगमंच
की
नयी
युवा
पीढ़ी
को
क्या
सन्देश
देना
चाहते
है?
मैं
नयी पीढ़ी को
ये कहना चाहूंगा
कि अपनी संस्कृति
की जड़ों से
बंधे रहे. और
हमारा उत्तराखंड का कल्चर
बहुत ही प्यारा
और मजबूत है.
हमें इसकी तो
कोई जरुरत ही
नहीं है कि
हम बाहर के
कल्चर का अनुशरण
करें. और मेरी
नए रंगकर्मियों से एक
गुजारिश भी है
कि आप जो
भी मंच के
लिए तैयार कर
रहे है. वो
अपना हो उसमे
पहाड़ का मीठापन
हो, ठंडी बयार
हो, बुरांश के
फूल की तरह
मोहकता हो और
उसकी क्वालिटी का स्तर
हिमालय से भी
साफ और ऊँचा
हो यही बातें
मुझसे कई बार
मोहन दा भी
बोलते थे कि
"यार भगवत रंगमंच
में यहाँ के
कल्चर की मौलिकता
हमेशा बनी रहनी
चाहिए"
Post a Comment