सोर घाटी का रंगकर्मी: कैलाश कुमार
आज से तीन साल पहले कैलाश भाई के साथ मेरी
पहली मुलाकात हुई 'पर्वतीय कला केंद्र' में उस समय वहां अमित सर द्धारा लिखित और निर्देशित
"विवेक: अमरत्व की ओर" नाटक की रिहर्शल चल रही थी. हालांकि सर ने पहले दिन
ही मुझसे कहा था कि कल एक आर्टिस्ट और आने वाले है शायद तुम्हारे उत्तराखंड से ही है,
सो मेरे मन ने मान लिया कि कोई मेरे जैसा ही नौसिखिया होगा मगर मैं गलत था, मध्यम कद-काठी,
लंबे बाल, चेहरे पे घनी दाड़ी और मूछें, खनकती आवाज़ और विनम्र स्वाभाव. तब मेरे सामने
एक मंझा हुआ कलाकार था जिसके अंदर समाज में हो रहे क़शमक़श की पीड़ा हिलौरे ले रही थी,
उस समाज को जगाने की चिंगारियां लपटें बन विस्तृत हो रही थी, किताबों तक ही सिमित लोक कथाओं
और लोकगीतों को जन-जन तक पहुँचाने का जूनून
था.
रंगकर्मी कैलाश कुमार
कैलाश भाई दिल्ली के रोहणी में रहते है उनका
पूरा परिवार दिल्ली में ही रहता है उनकी रंगमंच की शिक्षा भी दिल्ली में ही हुई, उनके
पास दिल्ली में रंगकर्म के लिए बहुत बड़ा क्षेत्र था, संशाधन थे और हर जरुरत के लिए
सुविधाएँ थी. किन्तु उनका पहाड़ के प्रति, हिमालय के प्रति और उत्तराखंड के प्रति प्यार
लगाव और बहुत कुछ कर गुजरने की सोच और क्षमता बहुत ही प्रसंशनीय और क़ाबिले तारीफ़ है.
उनकी यही सोच ने उन्हें दिल्ली से पहाड़ की तरफ पलायन करने के लिए मजबूर किया और कार्य
क्षेत्र बना डाला हिमालय की तलहटी के सुरम्य पहाड़ियों पर बसा एक सुन्दर शहर पिथौरागढ़
को जिसे सोर घाटी भी कहा जाता है और छोटा कश्मीर भी.
हिलजात्रा का दृश्य
कैलाश भाई मुझे अपने शुरुवाती दिनों की बातें
बताते है कि "जब शुरुआत में मैं पिथौरागढ़ आया तो मुझे मेरे मित्रों ने भी समझाया
कि मैं दिल्ली छोड़ के ना जाऊँ और घर वालों ने तो समझाते-समझाते मुझे पागल तक घोषित
कर दिया, किन्तु मेरे अंदर छलिया नृत्य और यहाँ की लोक कलाओं ने ऐसा डेरा जमाया कि
मैं सब कुछ छोड़ के यहाँ रहने लगा. और शरुवात के दिन तो काफी तकलीफ देह थे क्योकि तब
मेरे पास ना तो रूपये की व्यवस्था थी और ना ही किसी का साथ. किन्तु धीरे-धीरे मेरी
टीम में कलाकार जुड़ने लगे " उनसे जब मैंने पूछा की रूपये की कमी को आपने कैसे
पूरा किया? तो जवाब हंसकर "भास्कर भाई कुछ मेरे पास थे शुरुआत में वो लगाए और
एक बार तो शहर में चंदा मांगके भी हमने नाटक किया"
लोकगाथा 'भाना गंगनाथ' का दृश्य
कैलाश भाई ने एक बार मुझसे कहा था कि
" यार भास्कर भाई मैं उत्तराखंड में एक ऐसी टीम बनाना चाहता हूँ जो समाज में हो
रहे अत्याचारों के खिलाफ खुल के बोल सके" वास्तव में उन्होंने रंगमंच की एक बेहतरीन
टीम बनायीं है उनकी टीम का नाम है "भाव राग ताल नाट्य अकादमी" जो पिछले कई सालों से पिथौरागढ़ में बेहतरीन काम
ही नहीं अपितु नए रंगकर्मियों को प्रशिक्षण भी दे रही है साथ ही साथ जागर, छलिया नृत्य,
ढोल दमाऊ और लोकगाथाओं का मंचन कर यहाँ की संस्कृति व लोककलाओं को बचाने के लिए जी
तोड़ मेहनत कर रहे हैं. उनके निदेशन में "हिलजात्रा" का सफल प्रदर्शन तो उनकी
टीम देश के कई हिस्सों में कर चुकी है मगर उनके अंदर की रंगभूख बहुत विशालकाय है.
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