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हम भी क्याप्प भीषूण जैसे ठैरे यार दाज्यू !!!

      ता नहीं वो लोग उसे गांधी जैसा है ये क्यों बोलते है? पता नहीं वो तारीफों के पुल कैसे बांध लेते है? खैर जो भी हो हमारा तो पेट भर ही जा रहा है, और हम कर भी क्या सकने वाले हुए. अपना सुबह खाके निकल जाते है बाजार. फिर बस !  दिन भर कभी किसी की दुकान में कभी किसी दुकान पर फ़सकों की फुलझड़ियाँ लगाके दिन कटाई हो ही जाती है, आहा ! फसकों का भी अपना ही आनंद आने वाला हुआ यार... कभी सड़क के ढीक में बैठके घाम तापना कभी तास खेलके बख़त काटना यही दिन चर्या रह गयी अब.

वैसे अब कर भी क्या सकने वाले ठैरे यार हम ? ज़मीन बिक गयी ठैरी यार ! पता नहीं हमारी मत्ती को किस राढीच्यल की नजर लग पड़ी ये सब नीचे के पधान साले के चक्कर में हुआ, कठुवा बोलता था की जो वो नानी गाड़ वाले गधेरे में कांटे-झाड़ियों वाली बंजर पड़ी ज़मीन है ना उसे बेच दो अभी रेट भी अच्छा दे रहे है और उसमे एक एनजीओ खुल रहा है  और परिवार के सभी लोग उसमें नौकरी करेंगे, उसका ये कहना की हम रातभर फिर सो नई पाये ठैरे यार, स्वैण देखते रहे बच्चों की अच्छी पढ़ाई के बारे में, उनकी अच्छे परवरिश के बारे में भौतिक सुखों के बारे में. आहा... कुछ रातें तो रंग-बिरंगी स्वैणों में ही गुजारी हो दाज्यू !


ये सब मिले हुए ठैरे यार दाज्यू ! पटवारी, पेशकार, कानूनगो, तहशीलदार और वो राढीच्यालाओं की पहुँच बहुत ऊपर मंत्रियों तक ठैरी यार ! बबाहो ! ये बड़ी-बड़ी गाड़ियों में आये ठैरे भाबर के लोग. रुपया-पैसा तो बोरों में भर-भर के लाएं ठैरे यार! पटवारी पेशकार सब हमको भीषूण बना गए यार दाज्यू ! हमको कुछ हजार रूपये देकर दलाल, पटवारी और पेशकार अपनी जेबें भरकर ठग गए ठैरे यार वो साले हमको. वो कुकुरीच्यलों ने तो लूट दिया यार हमें, अब कुछ नहीं रहा यार हमारे पास कमीनों ने अपनी चुपड़ी-चुपड़ी बातों में उलझाकर सारी ज़मीन-जायदाद बिकवा दी. बस ! अब  कुछ नहीं बचा है यार सिवाय उन रंगबिरंगी स्वैणों के अब रोज घरवाई और नानतीनों का मुरझाया मुहं देखता हूँ तो अपना गुस्सा आफ़ि पीता हूँ.


  हम भी क्याप्प भीषूण जैसे ठैरे यार दाज्यू ! अब क्या कहें ? खुद की गलती ठैरी यार दलालों की बातों में आ गए. अब तो पार गांव का दीपुवा भी कह रहा है कि  अब कुछ भी नहीं हो सकता. पूरे इलाके में वो ही सबसे पड़ा लिखा समझदार ठैरा यार सोलह पास ठैरा वो... अब हम तो अनपढ़ ठैरे यार थोड़ी सी पैसों के लालच में पूरी ज़मीन घर सब बिचवा दीया यार, अब क्या करें अंदर से अपनी भूल का खूब मलाल होता है यार, अब कुछ भी नहीं बचा यार. अब तो एक ही चारा बचा है बस इस पहाड़ से पलायन कर दे, किसी बड़े शहर जाके अपना पेट भरें. काश ! कोई बता देता यार दाज्यू मुझे उस बखत की मुझे उन दलालों के झांसे में नहीं आना चाहिए था, वाह रे उत्तराखंड ... वाह तेरी सरकार डेढ़ दशक में भी आज़ादी के पूर्व जैसा आभास.
~:आपका पक्क दगड़ुवा तली बाखेयी का पनुवा:~

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