पंचाचूली की पहाड़ियों से...
बर्फ से ढकी पंचाचूली की पहाड़ियां रोज देखती है उत्तराखंड को... जब से सूरज की पैनी रौशनी पुरे हिमालय को स्वर्णिम कर देती है, शायद पंचाचूली की ऊँची पहाड़ियां कुछ कहना चाहती है. उनसे जहाँ अभी भी आभाव है राजनीती का, शिक्षा का, विचारों का, विकास का और अपने अधिकारों का.... मगर उनके अधिकारों का कई बार दमन करती यहाँ की सरकार, कुछ चंद माफियाओं से कुछ मोटी रकम लेकर खेत, जंगल, नदी और हिमालय को बेचने में तुली है, 15 सालों से अलग-अलग सरकार विकास के दावे करती आ रही है. शायद विकास हो ही रहा होगा. माफियाओं का, नेताओं के चमचों का, और उनके रिश्तेदारों का मगर शिकायत किससे करें साहेब कुछ बोलेंगे तो राजनितिक पार्टियों के गुंडे उठा ले जायेंगे और फिर रेत से भरे डंपर से कुचल दिए जाओगे.
लूट का
गोरख
धंदा
राजनीती
पार्टियां
भली
भांति
करती
है.
फिर
कुछ
युवाओं
को
एकाद
ठेके
देदो
हजार
लाख
तक
के
और
उन्हें
पार्टी
का
कोई
गुमनाम
पद
देदो!
फिर
देखो
बाबु
जी!
कैसे
छितरी
जाते
हैं
वो
फिर
तो
आपके
लिए
वो
किसी
की
जान
ले
भी
सकते
है
अपनी
जान
दे
भी
सकते
हैं.
खैर
छोडो
ये
उनका
निजी
मामला
है.
उन्हें
भी
तो
आगे
जाकर
उत्तराखंड
का
विनास
करना
हुआ.
यहाँ
के
पहाड़
लूटकर
दिल्ली,
मुम्बई
या
गोवा
में
होटल
बनाने
हुए.
या
फिर
कंस्ट्रक्शन
के
लिए
बड़े-बड़े
जेसीबी
मशीने
लेनी
हुई,
ठीक
है
साहब
लूट
लो
इस
देवभूमि
को
खरोड़
लो
सारे
के
सारे
पहाड़ों
को.
फिर
कौन
है
यहाँ
तुम्हारा
विरोध
करने
वाला
और
कौन
है
सुनने
वाला
सब
अंधों
के
राजा
ठैरे
यार.
फिर भू
माफियाओं
के
साथ
विधायक
या
फिर
कोई
मंत्री
की
मिलीभगत
से
और
गांव
के
पटवारियों
के
स्वच्छ
सहयोग
से
जमीन
को
बेचना
तो
अब
दाज्यू
बिलकुल
आसान
हो
गया
ठैरा
यार.
पटवारी
तो
भोले-भाले
गांव
वालों
को
ऐसे
मुनि
दे
रहा
है
बल
जैसे
जादू
दिखाने
वाला.
बेचारों
को
छह
महीने
बाद
पता
चल
रहा
है
बल
कि
उनकी
सारी
जमीन
के
साथ-साथ
मकान
भी
बिक
गया
है.
बेचारे
रो-रो
कर
फिर
पश्चाताप
के
आंसुओं
को
बहाकर
पलायन
कर
जाते
है
दिल्ली
को.
अब
कैसे
समझाना
हुआ
उन
गरीब
भोले-भाले
लोगों
को
कि
कुछ
गलत
हो
रहा
है
तुम्हारे
साथ.
चलो
! कोर्ट
चलते
है...
साहब
सब
ही
तो
मिले
ठैरे
यार
किसके
पास
जाओगे
?
अब गलती
राजनेताओं
की
भी
नहीं
कुछ
हमारी
भी
है.
हम
खुद
को
क्याप्प
समझने
लगते
है
बेबस
टाइप
का.
खुद
को
गरीब
कहलाना
भले
ही
पसंद
ना
हो
मगर
कामचोरी
के
दीवाने
ठैरे.
नशे
की
गिरफ्त
में
जकड़े
ठैरे,
और
दिल्ली
में
कुछ
भी
काम
कर
लेने
के
आदि
ठैरे.
अब
उत्तराखंड
का
दर्द
कौन
सुनेगा...
जनता
सो
रही
है...
राजनितिक
पार्टियां
लूटने
के
लिए
मरी
जा
रही
है....
छुटभैय्ये
नेता
गंदे
नाली
के
कीड़ों
की
तरह
पनप
रहे
है...
सबको
खबर
है
माज़रा...
डकारने
की
आवाज़
सब
सुन
चुके
है...
कहेगा
कौन...
कौन
देगा
अब
उत्तराखंड
के
लिए
अपना
बलिदान....
यहाँ
के
खुदगर्ज़
लोगों
के
लिए.
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