... और इससे बेहतर तो हमने पलायन करना उचित समझा
देश
को आज़ाद हुए 68 साल हो गए है और पृथक राज्य बने 15 साल... हाँ ! मैं उत्तराखंड बोल रहा
हूँ, वही उत्तराखंड जहाँ के लोगों को शहरों में "पहाड़ी" कहा जाता है, उस
समय बहुत फक्र महसूस होता है साहेब जब कोई यहाँ की खूबसूरती का बखान करता है, और सामने
वाले को हँसते- हँसते " कभी आओ यार ! हमारे गांव भी " ये कहना तो हमारी पुरानी
आदत जो ठैरी, चलिए अब एक नजर यहाँ की समस्याओं पर भी डालते है, वो समस्याएं जिन्हे
ना तो सरकार देख सकी, ना ही नौकरशाह देख सके और ना ही कभी किसी प्रतिष्ठित पत्रकार
को इन समस्याओं में गहरी दिलचस्पी लगी |
साल
के बारह महीने.... हर महीने में कुछ ना कुछ घटनाएँ, कभी कड़ाके की ठण्ड से जीवन अस्त-ब्यस्त,
कभी गर्मी से जंगलों की भयानक आग, कभी बारिस से ज़िन्दगी ठप्प, आप क्या समझते है बस
इतनी सी समस्या नहीं साहेब ! समस्या अभी बांकी है, समस्या अभी चूल्हे में रोटियां सेक
रही है... समस्या अभी उस स्कूल में जाने की तैयारी कर रही है जो जंगली रास्तों से आठ
मिल दूरी पर है, समस्या अभी आधे रास्ते पर डोली में बैठा वो मरीज़ है जिसे अस्पताल ले
जाना है.... समस्या अभी वो सैनिक का मृत शरीर है जिसे अभी-अभी कश्मीर से लाया गया है... समस्या अभी 11 साल का
वो बच्चा है जिसे कल रात तेंदुआ उठा कर ले गया. साहेब अँधेरा था पंद्रह दिनों से बिजली
गुल है बरसात से पहाड़ी खिसकी और बिजली के खम्भे गिर गए सही होने में एक महीना लगेगा,
और सड़को पर तो मौत मंडराने वाली ठैरी यार. अब
समस्याएं गिनाना बंद करता हूँ, कुछ और बातें करता हुँ, पहाड़ों पर बनायीं गयी उन सीढ़ीदार
खेतो को देखिये जो बगैर पानी के बंजर है, आँगन की उन क्यारियों को देखिये जिनमें पानी
के बगैर आलू के पौंधे मर रहे है, उस गर्भवती महिला को देखिये जिसका प्रसव कभी भी हो
सकता है... मगर उसके गांव से सड़क 18Km दूरी पर है, अब अस्पताल के बारे मैं कौन सोचेगा साहेब ? इसीलिए
हम अन्धविस्वासी हो गए ठहरे... अस्पताल की दूरी से तो हमें ऊपर वाले पर भरोसा करना
ज्यादा अच्छा लगा |
यहाँ
ना तो रोजगार है, ना ही सरकारी नौकरियां, ना ही बड़ी-बड़ी कंपनियां जिनमें यहाँ के युवकों
को रोजगार मिल सके और ना ही सैकड़ों बीघा उपजाऊँ ज़मीन. बस हर पल, हर कदम पर, हर पहाड़
पर आपदाएं, राजनैतिक आपदाएं, दैवीय आपदाएं, भूगर्भीय आपदाएं, बर्फीली आपदाएं, परिवहनीय
आपदाए, मानवीय आपदाएं, गरीबी आपदाएं, भूगोलीय आपदाएं. ज़मीनी क्रय-विक्रय आपदाएं, चिकित्सकीय
आपदाएं, साहेब ! आपदाएं ही आपदाएं है यहाँ, आसान नहीं है इधर जीवन यापन करना यहाँ का जीवन तो कष्टो
का संग्राम ठैहरा यार !
इतनी
समस्याओं के बावज़ूद हमने कभी आरक्षण का घृणित कटोरा नहीं पकड़ा.. और इससे बेहतर तो हमने
पलायन करना उचित समझा, गांव के गांव ख़ाली करना बेहतर समझा, तराई-भावर में शरण लेना
बेहतर समझा, अपना घरबार छोड़ दूर शहरों की फैक्ट्रियों में तीन-तीन शिफ्टों में काम
करना बेहतर समझा, हमने जी तोड़ मेहनत मजदूरी करना बेहतर समझा, हमने अपने हाथ और पैरों
में विश्वास करना बेहतर समझा, यहाँ तक की हमने अपने बच्चों को "छोटू" बनाकर
उन्हें होटलों में काम पर लगवाना बेहतर समझा. आरक्षण की मक्कारी हमें कभी पसंद नहीं
आई, वर्ना आरक्षण मांगने के हजारो वैध कारण हमारे पास उपलभ्द ठैरे. उन कारणों की ब्याख्या
की जाये तो साहेब ! कितनी तो किताबे भर जाएँगी, कई जीबी का डेटा भर जायेगा, पूरा सिस्टम
हैंग करने लगेगा.
हमें
मेहनत में विस्वास है यार, खुद के अंदर हाथ-पांव सही सलामत होने का गुरुर है जो लोग
आरक्षण के लायक है गरीब और विकलांग उन्हें आरक्षण मिले ये हमारी सोच है. सरकारी संपत्तियां
हमारे आस-पास भी ठैरे यार, कभी उत्तराखंड आके देखिये सड़क के किनारे रखे सालोँ से सरकारी
सरिया, बजरी और बिजली के खम्बे कभी उनमें हाथ तक नहीं लगाया. हमें सरकारी सम्पति तोडना-फोड़ना
अच्छा नहीं लगता वो हमारी ही सम्पति है, हमारे राष्ट्र की सम्पति है ऐसा हमारा मानना
ठैरा. अब
साहेब ! जानवर तो हैं नहीं.. सुना है जानवर लड़ते है बल अपने हक़ के लिए. अपने चारे के लिए और अपनी जगह के लिए. उन्हें जब
कुछ चाहिए होता है तो वो अपनी सींगों से जमीं को खोद देते है, साथी जानवरों को मार
देते है, पेड़ो को जड़ सहित गिरा देते है, कमजोर जानवरों के घरों में धावा बोल देते है,
जंगल में उत्पात मचा देते हैं. अब हम जंगली जानवर थोड़ीना है साहेब ! हमें तो इंसान
बनाया ठैरा यार, सभी जानवरों से सोचने की ज्यादा शक्ति दी ठैरी. ऊपर वाले ने रचनात्मक
और विचारात्मक मष्तिष्क दिया ठैरा. हमें उसका उपयोग करना भली भांति आता है साहेब !
खैर!
उन जानवरों की बात मै पहाड़ी क्यों करुँ, मैं खुश हुँ बगैर आरक्षण के ही, यहाँ हर साल
हजारों युवा अपनी मेहनत से आईआईटी निकालते
है, आईआईएम निकालते है, आईएएस निकालते है, और कई प्रतिष्ठित सस्थानों मैं प्रवेश लेते
है. कई सरकारी सस्थानो मैं ऑफिसर बनते है. मुझे खुद पर और तमाम उन सामान्य वर्ग के
पहाड़ियों पर गर्व है जो मेहनत करते है ना कि अपनी कमियों को छुपाने के लिए आरक्षण कि
मांग करते है. हमने अपनी खुद्दारी पर मरना सीखा है ना कि आरक्षण का कटोरा पकड़ना | जयभारत !!! जय उत्तराखंड !!!
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